Tuesday, March 17, 2015

पूस की एक और रात

पूस की एक और रात
“दौड़.....दौड़ बाबू....जोर लगा बाबू...जोर से भाआआआआअग ..बाआआआबू....“ कानजी की साँस की धोंकनी के बीच उसकी आवाज़ खराश सी बजी और चिर के टूट गयी. बाबू  जान छोड़ के उसके पीछे दौड़ रहा है...पूस की रात की सघन हवा और रात के एक बजे का सन्नाटा, दोनों के चार पैर ही पूरी पलटन की कवायद सा शोर मचा रहे हैं. शांय-शांय करते अँधेरे में उनकी साँसे साइरन की सी बज रही है....”भाग बाबू ....इस गली से जल्दी बाहर निकल, इधर से नहीं बावले... इधर से मुड़, जल्दी कर, परली तरफ बड़ी सडक है और वहाँ निरे संतरी घूमते रहते हैं. पकडे गये तो मारे जायेंगे.“ कानजी बाबू का हाथ पकड़ कर बाईं गली में धंस गया. गली सूनी और अँधेरी है. ट्यूबलाईट भी इक्का-दूक्का ही जल रहीं हैं. थोड़ी राहत देख के बाबू के पाँव हलके पड़े तो कानजी ने भी पैर धीमे कर लिए.
“भैया, थोड़ी देर ठहर जा ना, इधर तो कोई संतरी भी नहीं है.” बाबू को अभी इस सब की हटूटी नहीं है, पक्की सड़कों पर दौड़ते उसके पग रपट-रपट जाते हैं. कई दफा तो वो गिरने को हो गया, एक दफे तो पड़ ही गया, शायद अंगूठे से अब भी खून  बह रहा हो. अभी बालक ही ही तो है बाबू, ये लम्बी-चौड़ी देह जरूर बीस साल की सी है पर वो अभी पूरा पंद्रह का भी नहीं हुआ है. और शहर में तो आज पहली ही रात है उसकी. बाबू की आवाज़ में थकान ही नहीं आँसू भी है, अँधेरा था सो कानजी ने देखा तो नहीं पर भान किया कि बाबू की हालत पतली है, उसके पाँव आप ही धीमे पड़ गए. “सुन, इस गली से परली तरफ निकल लें, बस उधर मसान है वहाँ रुक जायेंगे. इधर चौकीदार आ गया या जाग हो गई तो मरण हो जायगा.“ भाग ले मेरे शेर, जवान मोट्यार है यार, थोडा और जोर मार ले.” कानजी ने बाबू का हौसला बढाया. ”और शहर के गंडकों का भी कोई भरोसा नहीं है. साले भूँकने लगें तो चुप ही नहीं होंगे.” कानजी सारे पेंच कस रहा है कि किसी तरह मसान आ जाये, जो अंत में आ ही गया. मसान की दीवार आते आते दोनों ने दौड़ना एकदम बंद कर दिया, अब उनकी चाल और साँस की धोंकनी दोनों सम पर  है. “भाया, इत्ता बड़ा और पक्का मसाण है, और बत्ती भी जल रही है इसमें तो... सहर में भूतों को भी बत्ती की आदत होती है क्या.” बाबू ने इससे पहले कभी ऐसा सुन्दर और बड़ा मसाण नहीं देखा था. बड़ा, पक्की बाड़, अन्दर कमरे, लाइटें, “ऐ भाया, चाल न अपन यहीं सो जाते हैं, कोई न कोई तो राख गरम होगी.  देख न रात भी कित्ती हो गई है और ठण्ड भी, मेरे को धूजणी चढ़ रही है, चल न भाया.” बाबू को अभी शहर का कोई तौर-तरीका नहीं आता, वो नींद, ठंड और थकन से गाफिल है. “अरे, बावला है क्या, कौन घुसने देगा तुझे भीतर, और धीरे बोल, अभी चौकीदार ने सुन लिया तो डंडा फेंक के माथा फोड़ देगा. स्याणा-मूणा इसी दीवार के पास बैठा रह, यहाँ चिता जलने की गरमास है अभी” कानजी ने उसके मुँह पर हथेली अड़ाते हुए बरजा. उसका मन दुःख और लाचारी से कट रहा है, क्या करे वो, कैसे ये रात गुजारे? उसे तो आदत पड़ गई, पडनी ही थी, आज सात साल होने आये बाप के मरने के बाद से इसी हत्यारे शहर में रह के सायकिल रिक्शा चलाते हुए. दिन भर कड़ी मेहनत करके अधपेट खाना और हाते के कोने में दुबक के रिक्शा में ही सो जाना उसको सह गया है अब. लेकिन बाबू को ये सब सहते ही सहेगा. गाँव में आधी खाता था चाहे सूखी पाता था, लोगों के घर हाली-चाकरी भी कर देता था पर दिन में स्कूल जाता था और रात को झूंपे की गरमास में सोता था, माँ गुदड़ी पर सुला कर रजाई भी ओढाती था.
लेकिन कानजी क्या करे, उसके पास घर ही नहीं है, न पैसा. गाँव भेज के और खुद के खर्चे से बचा-बचा के जो पैसा जोड़ा था कुछ माँ की बीमारी में लग गया और कुछ आखिरी चाल-चलावे में. भाई को लेके यहाँ आया तो मालुम हुआ हाते में खड़े रिक्शे के नीचे बंधी उसकी इकलोती रजाई भी उसी के जैसा कोई मुसीबत का मारा चुरा ले गया. “अब आज की रात तो ऐसे ही काटनी पड़ेगी लाला, कल तो मैं रजाई का इंतजाम कर दूंगा, बस आज की रात काट ले बीरा.” कानजी के लिए दस साल छोटा बाबू छोटा भाई नहीं बेटा है. कल जैसे भी हो वो एक रजाई खरीद लायेगा चाहे उसे सारा दिन गधे की तरह जुतना पड़े. “और हम सोयेंगे कहाँ?” बाबू की नादानी जाते ही जाएगी. “तेरे लिए राजा जी का महल खुलवा दूंगा, रेशम की छपर खाट में मखमल के गद्दे पर पोढ जाना कुंवर सा.” कानजी अनचाहे ही झुंझला गया, वो कैसे समझाये बाबू को कि इस शहर में एक कोठडी लेने के लिए भी गाँठ में दो हजार रुपये चाहिए और उसके पास तो अभी पचास रूपये भी पूरे नहीं होंगे
“कोई बात नहीं भाया, मैं भी तो हांसी ही कर रहा था, चल हम दोनों फिर से रेस लगाते हैं.” बाबू बालक है, नादान है पर मूरख नहीं. रेस लगाने का खेल खेल-खेल कर इस पोष की मौत सी ठंडी रात को काटने का खेल बाबू को थका रहा है पर इस रात में हत्यारी ठंड से पार पाने का और उपाय भी तो नहीं है भाया के पास. “नहीं रे, बहुत दौड़ लिए. अब बैठा रह थोड़ी देर यहीं. फिर चलते हैं हाते की तरफ, सुबह पांच बजे वाली राजधानी के लिए स्टेशन जा लगूंगा, कोई तो सवारी मिलेगी ही. और किसी के पास जगह दिखी तो तुझे भी कहीं न कहीं किसी के गुदडे में दुबकाने की कोशिश करता हूँ, कोई न कोई तो मेरी तरह जल्दी जाने की हिम्मत करेगा ही. अरे हाँ याद आया, राधे सैन को अपनी बीमार लुगाई का इलाज कराने के लिए रुपये चाहिए, वो जरूर उठेगा सुबह, तू उसी की खाली गुदड़ी में सो जइयो.” कानजी को ये बात क्या याद आई उसकी आधी चिंता कट गई. ‘आधी रात ही काटनी है अब तो ,फिर बाबू को सोने के लिए रजाई मिल जाएगी और दिन उगने के बाद तो कोई चिंता ही नहीं, खूब जोर है घुटनों में अभी, ऐसी दौड़ाऊँगा कि रिक्शा ही थक जाएगी. साँझ तक तो रजाई-चद्दर का इंतजाम कर ही लूँगा मैं. और ढाबे वाले साईं से मांग के देखता हूँ, उधार देने को राजी हो गया तो पुराने कपड़ों के ठेले से दो स्वेटर भी ले ही लूँगा. हरामखोर सेंकड़े पर दस रूपये ही तो काटेगा, काट ले, इस धूजनी से तो छुटकारा मिलेगा.’ कानजी मन ही मन एक-एक चीज का जुगाड़ लगा रहा है.
रात के करीब एक बजने को होंगे, ठंडी हवाओं में घुली बरफ दोनों भाइयों की पीठ पर कोड़े बरसा रही है, धुल-धुल के झिरझिरे हो गये फटे कमीजों की क्या औकात कि वो इस राक्षसी ठंड से जीत ले. दोनों भाइयों की साँस सम पर आते ही उनके दांत बजने लगे है. “ले उठ बाबू चलते हैं, बात करते-करते रात काट जाएगी, और तू शहर को देख समझ भी ले .आते साल तुझे सरकारी स्कुल में डाल दूंगा.” बाबू पढाई में तेज है और कानजी के सपने की सीढ़ी. वो सपना जो बचपन से ही उसके मन में बसा है. पढ़-लिख के रेलवे का अफसर बने, जब मन करे तब रेल में सेर करे. वो नहीं तो बाबू बन जाये एक ही बात है. “ऐ बाब्या, तू कौन से दर्जे में था रे अब के बरस, नोवें में न?“ कानजी ने उठते हुए बात चलाई.हाँ भाया, अबके भी पहले नम्बर पर पास हुआ था मैं.” बाबू पढाई के नाम से ही उछाह में भर जाता है. “भाया, तू आते बरस मुझे फिर से पढने तो बिठा देगा न? भाया मैं पढ़-लिख के रेलवे का अफसर बन जाऊं तो तू ये रिक्शा मत चलाना.” बाबू भाई का सपना अपनी आँखों में वहन कर रहा है, बरसों से. “ना रे, फिर कतई ना चलाऊंगा मैं रिक्शा-पिक्शा, क्यों चलाऊं मैं ये सब, मैं तो तेरी टरेन का गार्ड बन जाऊँगा. लाल-हरी झंडी दिखा के तेरी टरेन को चलाऊंगा ना? ट्रेन की बात आते ही दोनों भाइयों के खून में गरमी सरसरा गई. पर ठंड को ये कहाँ मंजूर था, तीर की तरह सरदार पटेल स्क्वेयर के पेड़ों से उतर कर सीधी उनके कलेजे में समा गई. बाबू के दांत बुरी तरह किटकिटा रहे हैं, उसकी धूजनी बढती ही जा रही है, “भाया, बहुत जाड़ा लग रहा है.” वो फिर से रुआंसा होने लगा. बस  चार-सवा चार तक का टेम पास कर ले बेटा, आज-आज की बात है.” कानजी का कालजा ठंड से कम और बाबू के दुःख से ज्यादा कट रहा है. “चल, जरा जल्दी-जल्दी चल, डील में गरमाई आएगी. अरे जवान मोटियार है ऐसी गंजी बातों से क्या घबराता है.” राम जाने उसने भाई को होंसला दिया या खुद को.
चलते-चलते दोनों भाई वैशाली एन्क्लेव तक निकल आये, अब बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच हवा के थपेड़े कुछ कम लग रहे हैं. “ओ रे राम जी, इत्ते बड़े-बड़े घर, इनमे तो सेकड़ों कोठरियां होंगी रे भाया. कित्ते लोगों का कुनबा है जो ऐसे घर बनाये हैं सेठों ने?” बाबू ने जीवन में पहली दफा अपार्टमेंट देखा है. “ऊपरले कोठों में चढ़ते होंगे तो कैसे थक जाते होंगे न?” “इसमें एक घर नहीं, निरे सारे लोगों के घर है लाला, इस एक घर में पचासों घर है. सब का न्यारा-न्यारा घर, न्यारी-न्यारी दुनिया है. सातों जात, सातों भांत के लोग रहते हैं इनमें. और सबसे ऊपरली मंजिल पे कोई पगों से नहीं जाता, सब बिजली के झूले से मिनटों में चढ़ जाते हैं. तुझे भीतर से दिखा के लाऊंगा किसी दिन.” “हाँ भाया, पढ़ा था मैंने. लिफ्ट कहते हैं उस बिजली के झूले को, है ना भाया.” बाबू उत्साह में है और सर्दी को भूल गया है, ये देख कर कानजी को तात्कालिक राहत मिली . “हाँ रे, शहर में और भी कई चीजे देखने की है, धीरे-धीरे सब दिखाऊंगा तुझे. सिनीमा भी दिखा के लाऊंगा एक दिन.”
“जागतेएएएए रहोओओओ” खडखडिया सायकिल की आवाज़ के साथ चोकीदार की पास आ रही आवाज़ से कानजी कांप गया, “जल्दी से निकल ले बाबू, चौकीदार ने देख लिया तो पुलिस को फोन कर देगा.” कानजी डरा हुआ फुसफुसाया. “ क्यों, क्यों दे देगा पुलिस को, हम अपने रस्ते ही तो जा रहे हैं किसी के घर में घुस के चोरी-अन्याय थोड़ी कर रहे हैं.” बाबू आवेश में फुसफुसाया जरुर पर भाई का कहना मान के तुरंत सोसाइटी के बाहर निकल गया.
“ अच्छा भाया, चल अपन घर ...मतलब तेरे हाते में चलें, तू मुझे रिक्शा चलाना सिखाइयो, हमारी रात पास हो जाएगी और ठंड भी नहीं लगेगी.“ बाबू के भोलेपन पर कानजी को हंसी आ गई “तेरे-मेरे बाप का राज नहीं है बेट्टा यहाँ, ये शहर है, चोर-डकैत को तो पकड़ते नहीं पर हमारे जैसे गरीब-गुरबों को देख लेगा तो पुलिस वाला ठुल्ला पकड के चार डंडे धरेगा और गांठ में जो दस-बीस रुपये हैं वो भी छीन ले जायेगा. पर चल चलना तो है ही, चल उधर ही चलते हैं.”
बाबू ने दोनों हाथ कस के बगल में दाब रखे हैं और दांतों को कस के भींचे है, पर बत्तीसी फिर भी किटकिट कर रही है. “बाबू, याद है माँ क्या कहा करती थी, पोस...खालड़ी कोस. सच्ची यार ये पोस तो खाल क्या हाड-पिंजर भी कोस ले जायेगा. हम गरीबों की तो सोच री सर्दी माता, “ कानजी लगातार बोले जा रहा है पर बाबू की बोलती बंद हो गई, वो सीत के साथ उनींदा, रुआंसा और थकान से बेहाल है. फूटे अंगूठे में भी दर्द की चीसें उठ रही है, उसे भूख भी लग गई है.
“अच्छा बाबू, तू क्या क्या पढता है स्कूल में, मुझे भी बता यार, मैं तो अंगूठा छाप ही रह गया इस जूण में.” कानजी की आवाज़ में पानी घुल गया तो बाबू सचेत हुआ “सच्ची कहूँ भाया, स्कूल में राख-धूल भी नहीं पढ़ाते, और आठ क्लासों को बिचारे तीन मास्टर पढ़ायें भी कैसे, मैं तो खुद ही किताब लेके घोटता रहता हूँ, गणित, अंग्रेजी नहीं समझ आते तो कभी शंकर गुरु जी से समझ लेता हूँ कभी राम जी के छोरे से. पर अब तो जैसी थी वो भी छूट गई..” अंतिम वाक्य बाबू ने मन में बोला.
अब दोनों भाई संजय मार्किट की ओर निकल आये हैं, आलीशान दुकानों के पट बंद हैं पर साइन बोर्ड के ऊपर चमकती रोशनियों से बाबू को सब दिख रहा है और बहुत कुछ वह समझ भी रहा है. कपड़ों की, मिठाई की, खिलोनों की, जेवरों की दुकानें और इन सब के बीच ये गरम कपड़ों की दुकान.. कित्ते अच्छे-अच्छे कोट-स्वेटर बने हैं बोर्ड पर. बाबू का मन किया लोहे के पट पार कर के अन्दर चला जाये. पर सयाना बाबू जल्दी-जल्दी आगे बढ़ता चला जा रहा है, भाई देख लेगा तो खामाखां जी दुखायेगा, पर भाई ने फिर भी देख लिया “बस इस सियाले रुक जा लाला, आते सियाले तुझे इसी दुकान से कोट-जर्सी पहना के ले जाऊँगा.” कानजी का बस चले तो वो अपने भाई पे दुनिया लुटा दे, पर अभी उसके पास दुनिया का एक कोना भी नहीं भाई के लिए. “ले बीरे, जरा जल्दी पग उठा, धीरे चलने से ठंड भर रही है डील में.” सच में ठंड बहुत बढ़ गई है,
अब दोनों भाई बड़ी सडक से निकल कर दूसरी सडक पर आ गए हैं जहाँ एक ओर के फुटपाथ पर बहुत से लोग रजाइयों में दुबके गहरी नींद सो रहे हैं. ‘रजाई.. कितने सुखी हैं ये लोग.’ बाबू को बस रजाई और रजाइयां ही दिख रहीं हैं पर उसने मन फेर के आँखें भी फेर ली. ऑंखें फिराते ही दूसरी तरफ तना तम्बू उस की आँखों में अटक गया. “भाया, चल ना, उस रेन बसेरे में रात काट लेते हैं.” बाबू जहीन तो है ही, कुछ उसने पढ़ा और बाकी समझ लिया. “बावला हो गया है क्या छोरे, खबरदार जो कभी फिर इस में सोने की सोची भी तो.” कानजी गुस्से और वितृष्णा से कसैला हो गया. बाबू को बस ये समझ आया कि भाई को ये बात बुरी लगी है सो वो जल्दी से उस जगह से आगे निकल गया पर तम्बू और रजाई की गरमास अभी भी उसकी कल्पना को सेक रही है.
अब दोनों भाई चुप है, बस चले जा रहे हैं, लक्ष्यहीन, दिशाहीन. बस चल रहे हैं क्योंकि और ठंड के विरूद्ध कोई दूसरी चाल उनके पास नहीं है. कानजी माँ की बीमारी, चालचलावे और दुःख-पीड़ा के ये पांच दिन में दम भर भी आराम कर सका न आँख भर सो सका था, आज वो नींद पोष की बर्फानी ठंड को पीछे ठेलती उस पर हावी होने लगी है लेकिन आँखों की जलती मिर्ची को जबरन जगाये वो चलता जा रहा है. अब वो लोग आदर्श नगर फ्लाई ओवर के नीचे पहुँच गये हैं, उनका हाता बस फर्लांग भर के अंतर पर है. हाता.. ‘जिसमे पचासों रिक्शे एक से एक सटे खड़े होंगे और जिनके मालिक या किरायेदार भी वहीं ठसे सो रहे होंगे. दो-एक भिखारी और एक कोने में बंधी हाते के मालिक की गायें, दो-चार आवारा कुत्ते भी वहाँ दुबके पड़े होंगे. गरीब आदमी को किसी गरीब से द्वेष नहीं होता, चाहे वह मिनख हो या ढोर-डंगर. धरती माता की कोख के जाये को धरती माता पे कौन बोझ. वहाँ उनके सोने के लिए भी जगह निकल ही जाएगी ये बात पक्की है, पर बिना ओढने-बिछोने के नींद कैसे आएगी.’ कानजी के  मन में जो चल रहा है बाबू उस से कतई अनजान है, वो तो इस सब उधेड़बुन से परे बस एक रजाई चाहता है जिसे ओढ़ते ही वो सो सके, कहीं भी. और इस कहीं भी की खोज वो अपने आसपास ही करता चल रहा है. “भाया, ये कोठडियाँ यहाँ ऐसे खाली क्यों पड़ी हैं?” फ्लाई ओवर के नीचे बहुत से सरकारी कियोस्क खाली पड़े हैं जिनमें कई के पल्ले ऐसे ही झूल रहे हैं. “रामजी जाने” कानजी बात टाल के आगे बढ़ गया. लेकिन बाबू के थमके कदम थमे ही रहे.
“चल छोरे, यहीं खड़ा रहेगा क्या? वो हमारा बाप पुलिस का इधर आ मरा तो हमे मार देगा.” बाबू को नहीं पर कानजी को गश्ती पुलिस का खौफ है कि वो कई सालों से ये भुगत रहा है.
“ए भाया..सुन ना, हम थोड़ी देर इस कोठडी में सो जाएँ.” बाबू एक खाली पड़े कियोस्क के आगे खड़ा है जिसके पल्ले हैं पर खुले हुए. “देख इस के किवाड़ भीतर से जुड़ लेंगे तो सीली हवा भी नहीं लगेगी और कोई देखेगा भी नहीं. सुबह जल्दी उठ के निकल लेंगे, पुलिस साब को मालुम ही नहीं पड़ने देंगे हम.”  सयानेपन से फुसफुसा के बोलते बाबू के जरूरतमन्द दिमाग ने फुर्ती से सब सोच लिया, ‘बस किसी तरह से भाई मान जाए तो इस चलने और धूजनी दोनों से निजात मिले. ना सही रजाई, कम से कम ये किवाड़ी हवा के फँचाटे तो रोकेगी. और कुछ देर कमर सीधी हो जाए तो भाई को भी आराम मिले, उसे तो दिन उगने के साथ ही बेगारी में लग जाना पड़ेगा.’ कानजी सुनते ही एक बार तो सनाका खा गया ‘छोरे का दिमाग बहुत तेज है, इसे हाते के कल्लू गेंग से दूर रखना पड़ेगा.’ लेकिन ठण्ड के थपेड़े और आन्खों की धुआँती मिर्चों ने उसके सोच को भी बाबू की राह पर पर छोड़ दिया ‘लड़का सच कह रहा है, कम से कम इस बर्फानी ठंड में और भटकने से तो बचेंगे. बाबू की हालत देखी नहीं जा रही अब. बिचारा, इस टाबर की उमर ही क्या है अभी, इस उमर में कित्ते दुःख देखने पड़ रहे हैं करमहीन को. माँ-बाप मर गये और भाई है जो गैल-गैल रुलाता फिर रहा है. इसका कहना मान ही लेता हूँ. एक रात ये भी सही, कल से तो मैं इंतजाम कर ही लूँगा...लेकिन मुझे तो तड़के ही उठ के राजधानी के पेसेंजर के लिए टेसन जाना है, इसका क्या करूंगा....चल कोई बात नहीं, मैं आते हुए चुपके से इसे जगा ले जाऊँगा. ये गुमटियाँ तो वैसे भी खाली ही पड़ी है, एक बरस से तो मैं देख रहा हूँ.’
“चल फुर्ती से चढ़ जा...अरे..अरे धीरे चल, पगरखी मत बजा और धीरे से चढ़, किवाड़ी की आहट मत करियो, जल्दी कर, किसी ने देख-सुणली तो मारे जायेंगे.” जरुरत कभी-कभी दिमाग को इतना चतुर और फुर्तीला बना देती है कि उसकी सोच और कारगुजारी एक साथ घटती है. कानजी और बाबू अब कियोस्क के भीतर हैं, गुमटी के पट उन्होंने बंद भी कर लिए हैं और अपने धडकते कालजे को काबू में करने में लगे हैं. वहाँ घुप्प अँधेरा न होता तो दोनों भाई फतह की ख़ुशी और भय की उत्तेजना से चमकते एक-दुसरे के चेहरे देख पाते. कानजी ने बाबू को टटोला, वो भी उस की तरह उकडू बैठा है. “सुन, चप्पल सिरहाने लगा के आडा हो जा, इधर माथा कर.” कानजी हाथ के टहोके से बाबू को निर्देश दे रहा है.
अब दोनों भाई लेट गये हैं, संकरी कियोस्क में उनकी लम्बाई बमुश्किल अट रही है. लेकिन जो भी मिला है उन दोनों को, खासकर बाबू को सातवें सुख सा लग रहा है. कम से इस काल सी रात के दुखों का अंत तो आया. थके-हारे कानजी और बाबू को ऊँघ के झोके भी आने लगे हैं पर कानजी को सुबह की सवारी लेने की चिंता भी सता रही है, नींद नहीं खुली तो पचासों रूपये का नुकसान हो जायेगा, गरीबी में आटा गीला. लेकिन ये नींद तो पीछा ही नहीं छोड़ रही ‘माई ठीक ही कहती थी, ये नींद मरी रांड दूसरी मौत होती है मिनख की..’ कानजी किसी तरह खुद को जगाये रखना चाह रहा है. लेकिन उसे ज्यादा प्रयास नहीं करना पड़ा, नींद के जोर से देह और दिमाग के ढीला पड़ते ही शरीर को ठंड ज्यादा सताने लगी है और ओढ़ने की जरूरत पहले से भी ज्यादा लग रही है. दोनों भाइयों के दांत एक सुर में कटकटाने लगे है, बाबू ने तो छाती-घुटने एकमेक कर लिए हैं पर इस से क्या होता, पोष की रात ऐसे ही कट जाये तो बात ही क्या. दोनों अपनी कोशिश कर रहे हैं और जाड़ा अपनी. और इसी कोशिश में बाबू का हाथ कानजी की छाती से अड़ गया. “ऐ भाया, तेरा डील तो गरम-गरम है रे” भोले बाबू के अनसोचे उद्गार अनचाहे ही होठों पर आ गये. कानजी को भाई की बात पर लाड़ भी आया और लाज भी, क्या जवाब दे वो इसका. “भाया में तेरे से चिपक के सो जाऊं?” बाबू को बस सर्दी का उपाय चाहिए.
कानजी ने ये बात सुनी और बस...जैसे उसकी आत्मा में बारह दिन पहले बिछड़ी उसकी माँ लौट आई. “हाँ आजा, तू तो मेरा बेटा है बाबू रे, जीजी भी तो हमको ऐसे ही चिपका के सुलाती थी ना, आज मै तेरी और तू मेरी जीजी. आजा लाला.” कानजी अब ठंड की जगह भावों की चपेट में है “ना भाया, मुझे लाज आती है.” बाबू अब बड़े भाई से शर्मा गया.
“क्यों, शरम की क्या बात, तू तो मेरा बेटा है. और याद कर तू छोटा था तो जीजी से चिपक के नहीं सोता था क्या? मैं तो दादा से भी चिपट के सो जाता था. माँ-बाप से कैसी लाज, और हम भी तो भाई-भाई ही हैं. देह की गर्मी से ये रात कट जाये बस.” छः फुटे बाबू को कानजी ने अपनी छाती से ऐसे चिपकाया हुआ है जैसे होते टाबर को माँ अपने कालजे से चिपका लेती है. बाबू के तन-मन दोनों को गरमास आ गई है, वो रजाई भी भूल गया है इस समय.
“भाया, वो अपने गाँव का इन्साफ मोहम्मद है ना, उसके कालेज की हिंदी की किताब में एक कहानी पढ़ी थी मैंने. वो भी अपने जैसे गाँव के गरीब मिनखों की कहानी थी और उसका नाम भी पूस की रात ही था.” बाबू आधी नींद में माँ से बातें कर रहा है.
“क्या था, मुझे भी बता ना?” थकी-हारी माँ नींद के बोझ तले से बोल रही है.
“उसमे भी पूस के जाड़े की रात में एक किसान और उसका कुत्ता हमारी ही तरह एक दुसरे की देही की गरमास में चिपट के सो जाते हैं.”
“सही है बीरे, दुःख-दरद और गरीबी में अपने-पराये और मिनख-जानवर का भेद नहीं रहता रे. ये सारे भेद तो पैसे ने ही करे हैं.” कानजी की ऑंखें अब पूरी तरह झिप गई है. “चल सो जा अब कुछ देर, फिर मुझे उठना भी है.” “हाँ, भाया.” अब बाबू भी ममता की गरमास में डूब चला है.
 बाहर कड़ाके की ठण्ड है पर उस पांच बाय छः की गुमटी में  प्रेम और वात्सल्य की एक आरामदेह कुनकुनी दुनिया रजाई गद्दे की तरह खुली पड़ी है जिसे ओढ़े-बिछाए दो बदन आश्वस्ति की गहरी नींद में सोये पड़े हैं. उन्हें मालूम ही नहीं हुआ कि कब राजधानी आके चली भी गई और कब सूरज निकल के जाड़े पर हावी हो गया.

तीसरे दिन के समाचारपत्र की सुर्खियाँ है ‘शहर में सर्दी का प्रचंड प्रकोप, पिछले सतरह वर्ष में सर्वाधिक ठंडी रही पिछली रात.’ और उसी के नीचे एक अन्य खबर भी है ‘आदर्श नगर फ्लाई ओवर के नीचे खाली पड़े एक कियोस्क में एक समलैंगिक जोड़ा मृत पाया गया. दोनों लड़के आवारा और असामाजिक गतिविधियों में लिप्त थे.’

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