Saturday, August 6, 2011

ऐसा देस है मेरा....

श्रावण मास में डिग्गीपुरी कल्याण जी की लक्खी पदयात्रा में लाखो पदयात्री अपनी आस्था के साथ कल्याण धनी को धोक लगाने जाते है.जिस राह से तीर्थ यात्री जाते है वह सडक उस दिन सुबह से लेकर शाम तक यात्रियों के भक्ति भरे भजन और जयकारे से गुंजायमान रहती है,हर वर्ष की तरह इस बार भी शुक्रवार को यह जयपुर से आरम्भ हुई.मेरा सौभाग्य कि मैं उस यात्रियों की भीड़ के मेले में लगभग एक घंटे रही.(भगवान के नाम के साथ झूठ बोलना पाप है सो ईमानदारी से बता दूँ कि रेंगते ट्रेफिक में फंस गई).जगह-जगह भजन जयकारा देते,रुक-रुक कर नाचते गाते,कनक दंडवत देकर बढ़ते यात्रियों की भक्ति देख के तो खुद के ऊपर शर्म आई कि हम में जरा भी आस्था नहीं है.और इससे ज्यादा अच्छा लगा ये देख के सड़क के किनारे-किनारे हर साल की भांति इस साल भी धर्मप्राण भक्त जनों ने इन जातरूओं के लिए उदार ही नहीं,अतिशय उदार मन से पानी,चाय,शरबत,नाश्ते की व्यवस्था कर रखी थी.हर टेंट में भरपूर खाद्य-पेय सामग्री और उसके साथ लाउडस्पीकर पर बजते भजन और बीच-बीच में खाने-पीने का भी आग्रह लगातार उच्चतम आवाज में गूंज रहा था.(एक बार फिर शर्म आई खुद पर कि इन दो उँगलियों से कभी चार पैसे भी इस तरह से धर्म के नाम पर नहीं छूटते.)खैर...
सुबह से घर से निकली थी,भूख मुझे भी लग रही थी और खाद्य सामग्री को देख के जी भी ललचा रहा था.पूरी-सब्जी,कचोडी,समोसे,जलेबी,गुलाब जामुन,फल,चाय,शरबत,क्या नहीं था वहाँ?स्टाल पे जाओ,आदरपूर्वक पाओ,जो खाना है खाओ और बचा हुआ खाना दोने-प्लेट के साथ सड़क पर डाल दो,सब भी यही कर रहे थे.डामर की काली सड़क-सफ़ेद पत्तल दोनों से गोरी-गोरी हो रखी है,एक मैं भी फेंक दूंगी तो कौन आफत टूट जायेगी.आज कर लेती हूँ कल फेसबुक पर पर निंदा कर लूँगी.नगर-प्रशाशन और नगर-निगम की अकर्मण्यता को कोस लूँगी,अभी कौन मुझे देखने बैठा है.अगर कोई मित्र होगा तो वो भी मेरी तरह माल उड़ाने में लगा होगा.पर क्या बताऊँ दोस्तो मुझे मोका ही नहीं मिला उतर के खाने का(भगवान की प्रसादी भी नसीब वालों को मिलाती है साहब) सो रेंगते-रेंगते चलती गाड़ी में बैठ कर ललचाई नज़रों से बसदेखती रही.
और मित्रो,एक दृश्य देख कर तो भारतीय आतिथेय परम्परा और भक्त जनों की कद्र करने वाली श्रद्धालू वृति के प्रति मन नतमस्तक ही हो गया.मैंने देखा कि खाने के बाद ताम्बुल,सौंफ-सुपारी की परंपरा में एक स्टाल पर पान मसाले और तम्बाखू के पाउच आदर पूर्वक वितरित हो रहे हैं.मन श्रद्धा और से विभोर गया.
इसे कहते है सम्पूर्ण जीमण.ये भोजन प्रसादी की महान परंपरा देखी जा सकती है और कही?कल से थके हारे यात्रियों को रैन बसेरे में सोमरस भी उपलब्ध हो जाये तो क्या ही बढ़िया हो.
जय हो.

नमन.

कितनी सारी बातें करतें हैं हम सब मिल के अपने इस ठीये पे.समाज,साहिय संस्कृति,राजनीती,फिल्म-संगीत..​.आदि...आदि...आदि...अच्छी-बुरी नई-पुरानी सब.फिर एक बड़ी त्रासदी को क्यों भुला दिया हमने?
आज ही के रोज़ 'लिटिल बॉय' नामक एक बड़ा राक्षस हिरोशिमा और नागासाकी नहीं अपितु सारी मानवीयता पर कहर बन कर गिरा था.आइये एक बार सारी संवेदना एकत्र कर के उन को स्मरण करें एवं ईश्वर से उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें.

Tuesday, August 2, 2011

साहित्य में प्रक्षेपण

"तुलसी नर का क्या,बड़ा समय बड़ा बलवान,
भीलन लूटी द्वारिका,वो ही अर्जुन वो ही बाण."
माँ के मुख से यह दोहा अनगणित बार सुनते हुए बड़े हुए.जब बड़े होके विद्यारथी के रूप में पढ़ा तो यह दोहे जी कही नज़र ही नहीं आये.अब जैसे-जैसे साहित्य में रमते गए तुलसी को भी पढते गए और इस दोहे के प्रति उत्कंठा बढती ही गयी.तुलसी साहित्य के सारे कक्ष,अज्जे-छज्जे,टान्ड-अटारी,मञ्जूषा-पिटारियां,आरी-बारी,ताख-दिवाले ही नहीं चौक-चोबारे,अलियां-गलियां तक छान मारी पर ये मोती कहीं नहीं दिखा.अब जब कि ये भी समझ आ गया है कि साहित्य में प्रक्षेपण क्या होता है.फिर भी मेरी उत्कंठा आज भी वहीं खड़ी है.कोई मनीषी मित्र बताएगा कि इस दोहे के साथ तुलसी बाबा कैसे जुड गए?