Sunday, December 11, 2011

मित्रो,सुना है फेसबुक को भी सेंसर करने पर विचार किया जा रहा है. इसका परिणाम...?
एक कहानी सुनिए-
एक शहर के किनारे एक दुकान थी और उस दुकान के बाहर टंगे एक पिंजरे में बड़ा सा हरियल सुग्गा बैठा सड़क के नज़ारे लेता रहता था. बड़े शहर के बहती सड़क से ढेरों लोग गुजरते थे.कुछ नियमित, कुछ अनियमित.
एक दिन शाम उस सड़क से एक स्त्री गुजरी.दिखने में तो ठीकठाक ही थी पर मिट्ठू मिया को नहीं जची तो नहीं जची.उसने नाक-भों सिकोड़ के देखा और जोर से सीटी मारी....
"मोहतरमा, क्या आप जानती है कि आप बहुत ही बदसूरत है?"जैसे ही स्त्री ने उसकी और देखा तोते जी जोर से चिल्लाये. बेचारी औरत उसे बहुत बुरा लगा,पर 'जानवर के क्या मुंह लगना' सोच के चुपचाप आगे बढ़ गई.
पर दूसरे दिन एन उसी समय वही मोहतरमा वहाँ से गुजरी और तोते जी के मुहँ का जायका फिर बिगड गया.उन्होंने वही जुमला फिर से उछाल दिया.बेचारी भली औरत खून के घूँट पी के आगे बढ़ गई.
अब तो रोज शाम का यही सिलसिला चल पड़ा.औरत गुजरे और तोते जी उनकी बेईज्ज़ती खराब कर दें.लेकिन हर चीज की तरह सब्र का भी अंत होता है औरत का भी हो गया.एक रोज वो तमतमाती हुई दुकानदार के पास पहुंची और तोते के साथ उन्हें भी खूब गरियाया-धमकाया. अब इस नए जमाने
के नए कानून..महिला उत्पीडन नामी कानून से सभी डरते हैं दुकानदार भी डर गया.उसने स्त्री के आगे विनम्रता से हाथ जोडे, तोते की बदतमीजी के लिए माफ़ी मांगी और तोते जी की जम के धुलाई की और धमकाया -
"बदजुबान,आगे से कभी मैडम जी की शान में गुस्ताखी की तो तेरी टाँगे तोड़ के दांतों की जगह रख दूंगा."
अगले रोज...वही समय,वही मैडम जी उस दुकान के आगे से गुजरी.कुछ आदतन और कुछ इरादतन मैडम जी ने दुकान की और देखा. बिचारे तोते जी टूटे-फूटे से अपने पिंजरे में पड़े कराह रहे थे.मैडम को बहुत मज़ा आया
"अब बोलो कैसी लगती हूँ मैं." भोंह नचा,नैन मटका के मैडम ने मज़े लिए.
"आप जानती है." तोता उवाच.
जय हो....

Monday, September 26, 2011

रजा रानी ..खतम कहानी.

बादल,बरखा,सावन,पानी,इक दिल राजा इक दिल रानी

सुने सुनाये प्रेम कहानी,

तुझ बिन इश्क मेरा नाकारा बिन मेरे क्या तेरी जवानी,

मैं हूँ इश्क हकीकी तेरा,तू है इश्क मेरा रूहानी,

तू गंगाजल मुझ दरिया में,मैं तेरे दरिया में फानी,

लेकिन कभी-कभी मेरे घर एक नया किस्सा होता है,कभी नहीं अक्सर होता है...

घर के टीन कनस्तर सारे, लड़ते मुझसे मेरे ही घर,बेढब सुर में कर्कस बानी,

अरे अभागे,सुन बे निकम्मे,मर गया क्या आँखों का पानी?

तुझे नहीं दिखते है क्या ये सूना चौका,खाली बर्तन,सूने नल का सुखा पानी?

देख जरा नादीदे पल भर,तुझे कभी नहीं दिखती क्या ये

फटी गूदडी,टूटी हांड़ी,ठंडा चूल्हा,कौड़ी कानी

हम सब से भी प्रेम कभी कर.

हम भी तेरे घर रहते है,तू तो नहीं पर हम सहते है.

बहुत सुन लिए तेरे नगमे, तेरी हीरें,तेरे ढोले,अगडम बगडम प्रेम कहानी,

बाहर निकल, हो दफा यहाँ से,संग ले अपने राजा-रानी.

Saturday, September 24, 2011

वह अद्भुत दोपहत अजातशत्रु के साथ.

अजातशत्रु,एक ऐसा नाम जो बचपन से बड़े लेखक के रूप में पढ़ा-जाना था एक सशक्त व्यंगकार और उस के बाद हिंदी सिनेमा और विशेषकर उनके गीतों के पारखी टीकाकार के रूप में.लता जी और आशा भोसले पर लिखित उनकी पुस्तकें भी पढ़ी थी किन्तु कभी उनसे सीधा परिचय नहीं हुआ था.पिछले वर्ष की बात है,एक दोपहर एक अपरिचित न. के साथ फोन घनघनाया.उठाने पर एक भारी गंभीर और जल्दबाज़ आवाज़ आई-"लक्ष्मी बोल रही हो?"
मेरे 'जी' कहने के पहले ही उधर से आवाज़ आई-"मैं अजातशत्रु बोल रहा हूँ." मैं चकित हो सकूँ उसके पहले ही दोबारा वही स्वर-"मैंने तुम्हारी कहानी 'खतेमुतवाजी' पढ़ी,लड़की क्या लिखती हो,और मैं इतना लापरवाह कि अब तक तुम्हे पढ़ा ही नहीं....." उसके बाद खतेमुतवाजी पर जो और जितना उन्होंने कहा वो लिखना व्यर्थ है क्योंकि उन्हें खतेमुतवाज़ी पर बात करना ही भा रहा था सुनना नहीं,ये मैं समझ चुकी थी.खैर,उसके बाद मालूम हुआ कि मेरे अग्रज से उनका मेलजोल हैं( सुमन चौरसिया के द्वारा) और वो उन दिनों इंदौर के पास पिगडंबर में सुमन भैया के घर रह कर ही हिंदी सिनेमा के गीतों पर अगली पुस्तक पर कार्य कर रहे हैं और मेरे इंदौर प्रवास के दौरान भी पिगडंबर रहेंगे.चूंकि संपादक हूँ तो तुरंत व्यावहारिक बुद्धि जागृत हुई कि लगे हाथों एक साक्षात्कार उनका 'अक्सर' के लिए ले लिया जाये.सो फ़ौरन प्रश्न तैयार किये और समय लेकर भाई के साथ पिगडंबर पहुँच गई.मुझे अच्छी तरह याद है 26 जनवरी की वो ढलती दोपहर,पहले भी सुमन जी के यहाँ जा चुकी थी फिर भी इस बार अजात जी के नाम के कारण मन में तनिक भय मिश्रित हिचकिचाहट लिए ऊपर चढ़ी,आगे भाई,पीछे मैं.सीढी चढते ही सामने सीधी दृष्टि पडी जमीन पर बिछे आसन पर अपना पोथी-पत्रा फैलाये एक दीर्घकाय सहज फक्कड मस्ती से बैठे प्रभावी व्यक्तित्व पर,'तो ये हैं प्रोफ़ेसर आर.एस.यादव जो अंग्रेजी के शिक्षक हैं और प्रसिद्द व्यंगकार तथा सिनेमाई आलोचक अजातशत्रु के नाम से जाने जातें है.किन्तु यहाँ सूफियाना मलंग सा बाना ओढ़े जो बैठा हैं वो कतई आतंकित नहीं करता.पर उन्हें देख के जितना मैं चौंकी शायद वो भी उतना ही चौंके,-"आओ लक्ष्मी" उन्होंने सहज भाव से कहा पर दूसरा वाक्य अपनी परिचित उतावली सी भंगिमा में तुरंत भैया को-"यार,तूने बताया नहीं मैं तो ऐसे ही ...."कहते हुए उन्होंने कुरते पर शाल ओढ़ ली.ईमानदारी से उस क्षण मुझे बहुत शर्म आई अपने आसमानी अनारकली सूट और स्टाइलिश सफ़ेद स्वेटर पर.और अगले ही क्षण उनके एक वाक्य ने रही-सही कसर भी पूरी कर दी.-"मुझे लगा खते मुतवाजी लिखने वाली,हिंदी की लेक्चरर डॉ लक्ष्मी शर्मा कोई ....आजा बैठ बेटा"
'हे ईश्वर, क्या मैं कतई पढ़ीलिखी शिक्षक नहीं लगती?' मैं दूसरे वाक्य से और भी अकबका गई पर उनके अंतिम वाक्य के स्नेह का सहारा लेकर बैठ गई.फिर कितनी बातें हुई, अधिकांश उन्होंने कही मैंने सुनी.बोलने का मन भी नहीं कर रहा था और उनकी बातों में अवकाश भी नहीं था.भाई मुझे नहीं,मैं ही उन्हें डाटती हूँ सुन कर वे चकित हुए,मैं सत्रह वर्षों से पढ़ा रही हूँ सुन कर वे फिर चकित हुए.कितनी बातें की हमने -सिनेमा पर,उनके गीतों पर,वर्तमान व्यंग पर,अंग्रेजी साहित्य पर और उनकी पसंदीदा कहानी 'खते मुतवाजी' और मेरी सद्य प्रकाशित चर्चित प्रशंशित कहानी 'मोक्ष' पर भी. मोक्ष के लिए उनका स्पष्ट मत था कि-"तूने एक बहुत अच्छी कहानी को बिगाड़ दिया,भजन मामी पर एक बलात्कार ठाकुर ने किया और दूसरा तूने." और मैं भूल गई कि मुझे उनका साक्षात्कार लेना है,जिसके लिए मैंने मेहनत से प्रश्न बनाये है और यहाँ तक आई हूँ.बस देखती रही उनके सरल-सहज व्यक्तित्व को.उनकी बातें सुनती रही और गुनती रही उस ज्ञान को जो बौद्धिकता से ऊपर उठ कर आध्यात्मिक ऋजुता में परिवर्तित हो गया है जो लिखित शब्दों को दो कोड़ी का मान के ख़ारिज कर रहा है,जो स्फोट के पीछे छुपे अर्थ को साधने और सुनने गुनने की बात कर रहा है.
लेकिन एक चीज थी जो मुझे लगातार खटक रही थी.उनके हाथ में एक कागज की पुडिया सी थी जिसमे रखी तम्बाखू को वे हर पांच मिनट के अंतराल पर खा रहे थे.मुझे आश्चर्य था कि कोई इतनी जल्दी-जल्दी तम्बाखू कैसे खा सकता है,पर चुप किये बैठी रही.इसी बीच उनकी पुत्री-दामाद भी मिलने आये और लौट गए.मुझे भी समय का भान हो रहा था कि अब चलना चाहिए किन्तु....अचानक अजात जी ने कहा-"अब तुम लोग भी जाओ,ठण्ड बढ़ने लगी है"
और उस क्षण में,अचानक मुझे न जाने क्या हुआ कि मैं महज दो घंटे के परिचित व्यक्ति,उस वरिष्ठ विद्वान के सामने जिससे में अब तक ज्यादा बोल भी नहीं पा रही थी,के समक्ष धृष्ट हो उठी-"जाउंगी, किन्तु इस को लेकर."मेरा इशारा उस पूडियाँ की और था.सुनते ही अजातशत्रु,सुमन चौरसिया,और भैया तीनों स्तब्ध...किन्तु मेरी बात जिद की तरह अड़ी रही-"और ये वादा भी कि अब आप ये नहीं खायेंगे. भाई मेरी हठधर्मी जानते हैं किन्तु इस रूप की उन्हें भी कतई आशा नहीं थी,सुमन जी भी जड़वत खड़े थे.कुछ पल के मौन के बात अजात जी ने ही कहा-"नहीं,खाऊंगा,अब तू जा." आज सोचती हूँ तो आश्चर्य होता है कि कैसे मैं घुटनों के बल उन के समक्ष बैठ कर ये कह सकी "तो मेरे सर पर हाथ रख के कह दीजिए." एक गहन मौन के अंतराल के बाद उनका हाथ मेरे सर पर था."आज के बाद कभी नहीं खाऊंगा,जो कोई नहीं कर सका वो तूने कर लिया,आज,इस घडी में मेरी माँ है तू," रुंधे गले और भीगी आँखों से उन्होंने कहा और तम्बाखू की पुडिया मेरे सामने पटक दी."अब तू जा."
नीचे आकर भाई हंसी से दोहरा गए,"चलो,अब ये तो पक्का हो गया कि दादागिरी मैं नहीं,तू ही करती है मुझ पर." किन्तु मैं न कुछ कह पा रही थी न सुन रही थी,एक शून्य स्तब्धता मुझ पर आच्छादित थी.कुछ-कुछ शर्म भी आ रही थी,ये क्यों और किस अधिकार से किया मैंने.किसी की बरसों पुरानी आदत इस तरह से छुडाने की जिद करना निश्चय ही अत्याचार है और अगर न छोड़ सके तो मेरी बात की और मेरी कितनी भद्द पिट जायेगी सुमन जी और भाई दोनों की निगाह मैं.
उसके बाद मैं वापस जयपुर आ गई,बगैर साक्षात्कार लिए किन्तु बहुत कुछ अपनी स्मृतियों में लिए.
आने के दो दिन बाद मैंने उन्हें शिष्टाचार फोन किया और उधर से आये पहले वाक्य ने ही मुझे नम कर दिया-"लक्ष्मी,मैंने तम्बाखू नहीं खाई और न कभी खाऊंगा."मेरी कृतज्ञता अवाक सुनती रही.
उस के बाद से अब जब भी बात होती है उनका पहला वाक्य यही होता है-"मैंने तम्बाखू नहीं खाई,न आजीवन खाऊंगा.मैं सबको कहता हूँ कि एक लडकी मेरी माँ बन के आई और मेरी तम्बाखू ले गयी.अब मैं उसकी बात कभी छोटी नहीं होने दूँगा.सुमन तो हंस के कहता भी है कि इस तरह से कोई हमें कहता तो हम भी छोड़ देते."
उसके बाद आज तक उनसे मुलाकात नहीं हुई सिर्फ फोन के द्वारा ही हमारी ध्वनियाँ संवाद सेतु है...न जाने अब कब मिले,शायद न भी मिले किन्तु वह अद्भुत क्षण सदैव मेरे साथ रहेगा और मुझे याद दिलाएगा उस सर्द दोपहर के शब्दातीत अनुभव की.उस सरल-सहज स्नेही किन्तु प्रखर व्यक्तित्व की जो स्नेह में दृढ हो जीवन भर में पक चुकी लत को एक झटके मैं छोड़ देता है. सच में वो अजातशत्रु ही हैं.

Saturday, August 6, 2011

ऐसा देस है मेरा....

श्रावण मास में डिग्गीपुरी कल्याण जी की लक्खी पदयात्रा में लाखो पदयात्री अपनी आस्था के साथ कल्याण धनी को धोक लगाने जाते है.जिस राह से तीर्थ यात्री जाते है वह सडक उस दिन सुबह से लेकर शाम तक यात्रियों के भक्ति भरे भजन और जयकारे से गुंजायमान रहती है,हर वर्ष की तरह इस बार भी शुक्रवार को यह जयपुर से आरम्भ हुई.मेरा सौभाग्य कि मैं उस यात्रियों की भीड़ के मेले में लगभग एक घंटे रही.(भगवान के नाम के साथ झूठ बोलना पाप है सो ईमानदारी से बता दूँ कि रेंगते ट्रेफिक में फंस गई).जगह-जगह भजन जयकारा देते,रुक-रुक कर नाचते गाते,कनक दंडवत देकर बढ़ते यात्रियों की भक्ति देख के तो खुद के ऊपर शर्म आई कि हम में जरा भी आस्था नहीं है.और इससे ज्यादा अच्छा लगा ये देख के सड़क के किनारे-किनारे हर साल की भांति इस साल भी धर्मप्राण भक्त जनों ने इन जातरूओं के लिए उदार ही नहीं,अतिशय उदार मन से पानी,चाय,शरबत,नाश्ते की व्यवस्था कर रखी थी.हर टेंट में भरपूर खाद्य-पेय सामग्री और उसके साथ लाउडस्पीकर पर बजते भजन और बीच-बीच में खाने-पीने का भी आग्रह लगातार उच्चतम आवाज में गूंज रहा था.(एक बार फिर शर्म आई खुद पर कि इन दो उँगलियों से कभी चार पैसे भी इस तरह से धर्म के नाम पर नहीं छूटते.)खैर...
सुबह से घर से निकली थी,भूख मुझे भी लग रही थी और खाद्य सामग्री को देख के जी भी ललचा रहा था.पूरी-सब्जी,कचोडी,समोसे,जलेबी,गुलाब जामुन,फल,चाय,शरबत,क्या नहीं था वहाँ?स्टाल पे जाओ,आदरपूर्वक पाओ,जो खाना है खाओ और बचा हुआ खाना दोने-प्लेट के साथ सड़क पर डाल दो,सब भी यही कर रहे थे.डामर की काली सड़क-सफ़ेद पत्तल दोनों से गोरी-गोरी हो रखी है,एक मैं भी फेंक दूंगी तो कौन आफत टूट जायेगी.आज कर लेती हूँ कल फेसबुक पर पर निंदा कर लूँगी.नगर-प्रशाशन और नगर-निगम की अकर्मण्यता को कोस लूँगी,अभी कौन मुझे देखने बैठा है.अगर कोई मित्र होगा तो वो भी मेरी तरह माल उड़ाने में लगा होगा.पर क्या बताऊँ दोस्तो मुझे मोका ही नहीं मिला उतर के खाने का(भगवान की प्रसादी भी नसीब वालों को मिलाती है साहब) सो रेंगते-रेंगते चलती गाड़ी में बैठ कर ललचाई नज़रों से बसदेखती रही.
और मित्रो,एक दृश्य देख कर तो भारतीय आतिथेय परम्परा और भक्त जनों की कद्र करने वाली श्रद्धालू वृति के प्रति मन नतमस्तक ही हो गया.मैंने देखा कि खाने के बाद ताम्बुल,सौंफ-सुपारी की परंपरा में एक स्टाल पर पान मसाले और तम्बाखू के पाउच आदर पूर्वक वितरित हो रहे हैं.मन श्रद्धा और से विभोर गया.
इसे कहते है सम्पूर्ण जीमण.ये भोजन प्रसादी की महान परंपरा देखी जा सकती है और कही?कल से थके हारे यात्रियों को रैन बसेरे में सोमरस भी उपलब्ध हो जाये तो क्या ही बढ़िया हो.
जय हो.

नमन.

कितनी सारी बातें करतें हैं हम सब मिल के अपने इस ठीये पे.समाज,साहिय संस्कृति,राजनीती,फिल्म-संगीत..​.आदि...आदि...आदि...अच्छी-बुरी नई-पुरानी सब.फिर एक बड़ी त्रासदी को क्यों भुला दिया हमने?
आज ही के रोज़ 'लिटिल बॉय' नामक एक बड़ा राक्षस हिरोशिमा और नागासाकी नहीं अपितु सारी मानवीयता पर कहर बन कर गिरा था.आइये एक बार सारी संवेदना एकत्र कर के उन को स्मरण करें एवं ईश्वर से उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें.

Tuesday, August 2, 2011

साहित्य में प्रक्षेपण

"तुलसी नर का क्या,बड़ा समय बड़ा बलवान,
भीलन लूटी द्वारिका,वो ही अर्जुन वो ही बाण."
माँ के मुख से यह दोहा अनगणित बार सुनते हुए बड़े हुए.जब बड़े होके विद्यारथी के रूप में पढ़ा तो यह दोहे जी कही नज़र ही नहीं आये.अब जैसे-जैसे साहित्य में रमते गए तुलसी को भी पढते गए और इस दोहे के प्रति उत्कंठा बढती ही गयी.तुलसी साहित्य के सारे कक्ष,अज्जे-छज्जे,टान्ड-अटारी,मञ्जूषा-पिटारियां,आरी-बारी,ताख-दिवाले ही नहीं चौक-चोबारे,अलियां-गलियां तक छान मारी पर ये मोती कहीं नहीं दिखा.अब जब कि ये भी समझ आ गया है कि साहित्य में प्रक्षेपण क्या होता है.फिर भी मेरी उत्कंठा आज भी वहीं खड़ी है.कोई मनीषी मित्र बताएगा कि इस दोहे के साथ तुलसी बाबा कैसे जुड गए?

Friday, July 15, 2011

शुरू है मेरी कलम की यात्रा जहाँ हम मिलेंगे प्रभावशाली शख्स से ,जिनके ब्लॉग :

(http://www.drlakshmi.blogspot.com/)
को तो हम देख ही चुके है इसके अलावा अपनी कहानी संग्रह” एक हंसी की उम्र “को भी महका चुकी है ... तो आइये इस यात्रा के आरम्भ में मैं मिलाती हूँ ....डॉ .लक्ष्मी शर्मा ,जो जयपुर में कोलेज लेक्चरर होने के साथ ही ,लेखिका व् ब्लॉगर भी है |
बंगाल में एक पत्रकार ने लिखा कि यौनकर्मी के पुत्र ने क्रिकेट में बेहतरीन प्रदर्शन किया। आम पाठक की तरह आप भी खेल से इतर क्रिकेटर की माता के संबंध में सोचने लगे होंगे, लेकिन डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा ने इस विचार की जमकर भर्त्‍सना की। उन्‍होंने युवा क्रिकेटर की मानसिक अवस्‍था की पैरवी करते हुए कहा कि एक बालक आज अपने अतीत से लड़ते हुए वर्तमान में अपने वजूद को तलाश रहा है, और पत्रकार उसके घटिया अतीत को कुरेदने का प्रयास कर रहा है। पेशे से शिक्षिका डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा जो खुद को मानववादी मानती हैं साथ ही नारीवादी दृष्टिकोण को एक बार फिर समझे जाने की जरूरत बताती हैं। प्रवीणा जोशी ने डॉ. लक्ष्‍मी से ऑनलाइन बातचीत की। यहां देखिए उसका सम्‍पादित अंश...
प्रवीणा: नमस्कार लक्ष्मी जी
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: नमस्कार।
प्रवीणा: आप ब्‍लॉगिंग में नई हैं, मगर लिखने से आप का सम्बन्ध कब से है?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: मैं महाविद्यालय में पढती थी, तभी से शैक्षणिक आलेख लिखती रही हूं। मेरी पहली बार बाल कहानी राजस्थान पत्रिका में वर्ष 2002 में छपी। साहित्यिक पत्रिका कथन में मेरी कहानी छपी। जिसकी तारीफ़ भी लिखी गयी और बाद में अनुवाद भी हुआ।
प्रवीणा: आपका ब्लॉग आखर माया विविधता लिए हुए है। कहीं आपने राजनीति को तो कही लेखकों की लेखनी तक को आड़े हाथों लिया है। ऐसी संवेदनाओं का स्रोत कहां से मिलता है?आपकी कोई सतत प्रेरणा?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: जी, सबसे ज्यादा तो पढ़ना और खूब पढा़ना। दूसरे, इस जिंदगी और सच्चे चरित्रों को गहरे से देखना। किसी वाद-विशेष से न जुडना और खुद को हमेशा विद्यार्थी मानना। प्रेरणा स्त्रोत भी कोई एक नहीं। जीवन ने जहाँ-जहाँ सिखाया, जैसे जैसे तरीके से सिखाया, तो मैंने भी शिष्य भाव से ग्रहण किया।
प्रवीणा: और सिखाने के बारे में आपके खयालात हैं?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: वह भी आप सिखाने का भाव दूर रख के ही कर सकते है। दूसरी बात शिक्षार्थी की ग्रहण-क्षमता। तीसरी बात, आतंकित किए बिना सरलतम तरीका और अंतिम बात गुरु का उस विषय पर पूरा अधिकार हो।
प्रवीणा: ‘’कई बार ऐसा होता है कि किसी बहुत अच्छी वस्तु का प्रत्येक पक्ष इतना अच्छा होता है कि उसकी लहर में उसका एक-आध बढ़िया पक्ष उपेक्षित हो जाता है’’
ये वाक्य मैंने आप ही के एक लेख से लिए है ,,,तो अब आप मुझे बता सकती हैं कि लक्ष्मी शर्मा का कौनसा पक्ष अभी तक उपेक्षित है?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: मुझे नहीं लगता। हाँ, फिल्मों से सम्बंधित जानकारी भी मुझे काफी है, उस विषय पर लिखना चाहती हूं, किन्तु पढ़ने,पढा़ने, संपादक कार्य करने (मैं एक साहित्यक पत्रिका 'अक्सर'की संपादक भी हूं) और अन्य आलेख वगैरह लिखने में व्‍यस्‍त रहने के कारण इस विषय पर काम नहीं कर सकी हूं अब तक। और हां, अपने समाज की अखिल भारतीय सांस्‍कृतिक मंत्री भी हूं।
प्रवीणा: अब नया क्‍या पक रहा है?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: अभी मेरा एक कहानी संग्रह 'एक हँसी की उम्र' प्रकाशित हुआ है।
प्रवीणा: क्या कुछ खुलासा करना चाहेंगी?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: ये कहानी संग्रह है। इसकी सभी कहानियां साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और सराही गई हैं। 'दलित विमर्श एक शोधपत्र', 'मोक्ष ' और' खते मुतवाजी'कहानियां विशेष चर्चित हुई हैं।
प्रवीणा: आपके लेखों में आध्यात्मिकता और नारीवाद का प्रभाव दिखाई देता है। कोई खास वजह ?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: नारी नहीं इसे मनुष्‍यवाद कह सकते हैं। सबको बराबर सम्मान मिले नर हो या नारी हो। और जो दमित हो उसे उठाया जाये। अगर आप इस तथ्य को मान के इस पर चलते है तो ओढ़े हुए आध्यात्म की आवश्यकता नहीं पड़ती। मनुष्य का जहाँ कल्याण भाव है आत्मा अधोगति हो गई और आ गया आध्यात्म। बस में तो इसी छोटे से नियम पर चलती हूं।
प्रवीणा: आपका आम दिन कैसे गुजरता है?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: सामान्य स्त्रीयों की तरह गृहस्थी संभालना, बच्चों के साथ खेलना, आप जैसी मित्रों से गप्पें लगाना, सब कुछ सामान्य, बस।
प्रवीणा: ‘’अमेरीका की दादागिरी तो कब से चल रही है, अब ब्रह्मपुत्र को अपनी और मोड़ के चीन ने भी भारत के विरूद्ध पर्यावरण युद्ध का एलान कर दिया कल से दादागिरी भी करेगा,कर लेने दो, जो करेगा सो भरेगा, पाल बाबा आप ये बताओ मेरी बहू के विरूद्ध मेरी दादागिरी कब चलेगी ?’’
आपकी लेख की इन लाइनों ने मेरी उत्‍सुकता बढ़ा दी है, क्या मेरी सास की तरह आप भी अपनी बहु पर दादा गिरी की हिमायती हैं?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: ये सब व्यंग था। इस ज़माने की गडबड और हमारे अन्धविश्वास पर। इनका क्या उत्तर दूँ।
प्रवीणा: क्या किसी सामाजिक कार्यों में समय दे पाती है लेखन के बीच ?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: अपने समाज में स्त्री शिक्षा के लिये संघर्ष करती हूं। बच्चे बड़े हो गए, पति सहयोगी हैं। दिन में सोती नहीं, टी.वी.कम देखती हूं।
प्रवीणा: कोई संदेश देना चाहेंगी आज की युवा पीढ़ी और महिला ब्‍लॉगर्स को?
डॉ. लक्ष्‍मी शर्मा: लक्ष्य पर दृष्टि रखें। खूब पढ़े, गलत के विरूद्ध निर्भय हो के आवाज़ उठाएं और जीवन को सिर्फ भौतिकतावादी दृष्टि से न देखे। महिलाएं भी अपने व्यक्तिव को समाज में सक्षम बनाएं। अपने और अपनी साथियों के लिये विशेषकर बच्चियों के लिये शिक्षा के अधिकारों की रक्षा करे। निर्भय होकर लिखें। विचार साझा करे और सबसे बड़ी बात नारीवादी दृष्टिकोण को सही अर्थों में समझें।
प्रवीणा:धन्यवाद लक्ष्मी जी , उम्मीद है आपसे इसी तरह सीखने को मिलता रहेगा।,
लक्ष्मी शर्मा :धन्यवाद प्रवीणा जी ,मुझे भी “मेरी कलम की यात्रा “में आकर बेहद खुशी हुई |
दोस्तों ये है लक्ष्मी शर्मा जिनसे हमने बातचीत की ,और इसी तरह हमारे कलम की यात्रा चलती रहेगी ,,,हर बार एक बेहतरीन शख्स से मिलवाने का वादा करते हुए ....अलविदा !

Saturday, July 9, 2011

सुनो कामायनी.
तुम ह्रदय प्रान्त की वासिनी,तुम सरस भाव की स्वामिनी.
ओ चिंता भाव विनाशिनी
तुम आशा,तुम श्रद्धा,तुम लज्जा, तुम उदात्त काम की वाहिनी,
तुम से रस ब्रहम छलकता था आनंद तुम्ही में रहता था,
तुम सत्य की आख्यायिका,शिव भाव की संवाहिका
तुम सुंदरता की प्रतिमूर्ति,मनु वंश की तुम मातृका
तुमसे डरते थे कलुष भाव,तेरे समक्ष नत अहं भाव.
तुम मुक्ति कैलास की परम गति,मनुज प्रेय की पूर्ण सुगति
.तुम काव्य पुरुष अर्धांगिनी,रस-आतुर मन मधुमलिनी,
किन्तु सुनो कामायनी,
अब वह जय का समय नहीं, शांकर कल्याण का मूल्य नहीं,
अब नहीं प्रसाद गुण ग्राहक मन,
अब नहीं सुमन,अब नहीं सुमन,
अब समय नहीं तेरे मन का,अब काल नहीं उन स्वपनो का,
हैं ध्वस्त दुर्ग आदर्शों के, ढह गई समस्त प्राचीरें सब
अब इस यथार्थ के कटु युग में,संकुल,खंडित आदर्श हुआ,
अब सत्य विवश,शिवता बाधित, अब कलुषित वह सौंदर्य हुआ.
लो मांग विदा सब से सविनय,कर लो प्रयाण हे मानिनी,
लो मांग विदा कामायनी.
सुनो कामायनी.
तुम ह्रदय प्रान्त की वासिनी,तुम सरस भाव की स्वामिनी.
ओ चिंता भाव विनाशिनी
तुम आशा,तुम श्रद्धा,तुम लज्जा, तुम उदात्त काम की वाहिनी,
तुम से रस ब्रहम छलकता था आनंद तुम्ही में रहता था,
तुम सत्य की आख्यायिका,शिव भाव की संवाहिका
तुम सुंदरता की प्रतिमूर्ति,मनु वंश की तुम मातृका
तुमसे डरते थे कलुष भाव,तेरे समक्ष नत अहं भाव.
तुम मुक्ति कैलास की परम गति,मनुज प्रेय की पूर्ण सुगति
.तुम काव्य पुरुष अर्धांगिनी,रस-आतुर मन मधुमलिनी,
किन्तु सुनो कामायनी,
अब वह जय का समय नहीं, शांकर कल्याण का मूल्य नहीं,
अब नहीं प्रसाद गुण ग्राहक मन,
अब नहीं सुमन,अब नहीं सुमन,
अब समय नहीं तेरे मन का,अब काल नहीं उन स्वपनो का,
हैं ध्वस्त दुर्ग आदर्शों के, ढह गई समस्त प्राचीरें सब
अब इस यथार्थ के कटु युग में,संकुल,खंडित आदर्श हुआ,
अब सत्य विवश,शिवता बाधित, अब कलुषित वह सौंदर्य हुआ.
लो मांग विदा सब से सविनय,कर लो प्रयाण हे मानिनी,
लो मांग विदा कामायनी.
कर दो क्षमा कामायनी.

Monday, June 6, 2011

आप तो बह पधारो हुकुम.

मित्रो,आज एक कहानी.मैंने नहीं लिखी है,कहीं पढ़ी थी आज के हालात में बहुत याद आ रही है सो आपसे साझा कर रही हूँ.-

किसी समय,किसी गाँव में एक ठाकुर सा थे,खानदानी ठाकुर.रोबीला सरापा.तुर्रेदार पाग, बाँकडली मूंछें,अकड में अमचूर.उनके सामने 'ते' से 'रे' कहना तो बड़ी बात थी मजाल जो कोई आँख उठा के भी देख ले.तो एक दिन ठाकुर सा के मन में लहर उठी और वो घोड़े की सवारी पर विराजमान हो के भ्रमण के लिए निकल पड़े.संध्या का समय,नदी का किनारा,ठंडी बयार सब कुछ बड़ा सुहावना ठाठ..लेकिन अब घोड़े जी को नहीं जंचा तो नहीं जंचा,उन्होंने पैंतरा बदला और ठकुर सा उनकी पीठ से कूद कर नदी में जा बिराजे.अब नदी ज्यादा गहरी नहीं थी पर जिसको तैरना न आए उसके लिए तो नाला भी समंदर है सो ठाकुर सा भी बहने लगे.

तकदीर की बात उसी समय उधर से एक बंजारा दम्पति भी गुजर रहे थे बन्जारण की निगाह गोते खाते ठाकुर सा पर पड़ी और वो जान लगा के चिल्लाई-"अरे काल्या का दादा,भाग्यो जा,ठाकरियो डूब्यो."

अब ठाकुर सा को इतनी बदतमीजी सहन हो? वो डूबते उतरते गुस्से में दहाड़े--ऐ घीन्स्या,समझा ले तेरी लुगाई को.इसकी इतनी जुर्रत कि हमारे लिए ऐसे बात करे."

ठाकुर सा की बात सुनते ही नदी में कूदने को तत्पर बंजारा ठिठक कर जहाँ था वहीँ रुक गया और हाथ जोड़,गर्दन झुकाए दीनता से बोल-"खम्मा घनी सरकार.इस गवाँर में धेले भर की अक्कल होती तो मेरे साथ जंगल-जंगल ऐसे भटकती क्या.आप सा इस मूरख की बात पर ध्यान ही मत दो.आप तो बह पधारो हुकुम."

दोस्तो,कहानी खतम.मैंने सुना दी अब आप अटकल लगाइए कि इस कहानी में देश कौन है,जनता कौन,....कौन और ....कौन....?

जय हो.

Thursday, April 14, 2011

विष्णु या उसके अवतार राम और कृष्ण जैसे,सुन्दर,कुलशील,नागरी गुणों से युक्त,वैभवशाली,परम प्रतापी,चक्रवर्ती राजा के स्थान पर आज भी हर कन्या उस औघड,अवधूत ,श्न्सान वासी,फक्कड शिव की आराधना क्यों करती है.इस पर विचार किया है कभी.क्या है उसके पास?बर्फीले हिमालय की कंदराओं में ठिकाना.न ठीक से वस्त्र पहनते हैं न कोई दिशाओं में फैला साम्राज्य है.साथी भी है ती उन्ही की तरह उबड-खाबड.कभी किसी राक्षस को वर दे के पंगा ले लेते हैं तो कभी कामदेव को मार के सृष्टि परमपरा को ही खतरे में डाल देते है.कभी दक्ष के यग्य में जाके सारे प्रभु-वर्ग को ही ललकार उठते है.तीसरी आँख खुल गई तो गडबड और डांस शुरू कर दिया तो भी जान सांसत में. और भोले इतने कि कोई भी फायदा उठा ले. कोई अमर हो रहा है तो कोई खुद का पीछा छुड़ाने को उन्हें ज़हर पीने को उकसा रहा है .फिर भी वहीँ क्यों ...
इसलिए कि स्त्री के सम्मान और निजी अस्मिता की रक्षा का जो बोध शिव को है वो किसी अन्य को नहीं.उन्होंने न सती को राज-पात दिया न पारवती को.बस स्वयं को पूरी तरह समर्पित किया.
राम की तरह वे किसी प्रवाद के चलते अपनी पत्नि को त्यागते नहीं बल्कि उसका अपमान करने वाले के विध्वंस पर उतर आते हैं.जीवित पत्नि को त्यागना तो अलग वो उसके शव को भी बहुत पीड़ा के बॉस देह से उतरते हैं.
कन्हैया जी की तरह रास लीला रचा के मोहित करना उन्हें नहीं आता किन्तु उनकी एकनिष्ठता की पराकाष्ठा है कि उन्हें बेहद प्रेम करने वाली पारवती से भी वे बहुत परीक्षा के पश्चात विवाह करते है ककि प्रथम पत्नि के प्रेम में वे आकंठ डूबे थे.
सारे देवताओं में मात्र शिव ही हैं जो अपनी पत्नि को स्वतंत्र इकाई की तरह सम्मान देते है.पारवती गहनों में सज कर ऐश्वर्य उठाने की बंधनकारी सुविधाओं में न जीती हो किन्तु जब उनको मौज आये वो शेर पर सवार हो कर कहीं भी जा सकती है और किसी भी आततायी का नाश कर सकती है.यही नही ,ये शिव की आधुनिक चेतना ही है जो रौद्र रूपा पत्नि का क्रोधावेग शांत करने के लिये असकी लात अपने सीने पर खा लेते है. "सारी गृहस्थी तेरी जो तुझे रुचे वही कर" का भाव रखने वाले शिव स्त्री के गुणों से इतने अभिभूत है कि उसे अनुभव करने और आदर देने के लिये वो अर्द्धनारीश्वर को भी स्वयं जीते है.
यही कारण है कि हम सब शिव सा पति चाहतीं है कि हमारी निजता का आदर हो,हमें अपने स्वतंत्र बोध के साथ ससम्मान जीने का आनंद मिले.न सीता की तरह अग्निपरीक्षा दे के भी परितक्त्य होना पड़े, न रुक्मिणी की तरह सौतनों का दुख झेलना पड़े और न ही लक्ष्मी जी की तरह चरण दबाने पड़े.
तो क्यों मांगे कोई भी स्त्री राम,कृष्ण और विष्णु सा वर?